क्या है मामला?
लोकसभा में बुधवार (20 अगस्त 2025) को गृह मंत्री अमित शाह ने तीन अहम विधेयक पेश किए:

- संविधान (130वां संशोधन) विधेयक, 2025
- केंद्र शासित प्रदेश शासन (संशोधन) विधेयक, 2025
- जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन (संशोधन) विधेयक, 2025
इन विधेयकों में एक बड़ा प्रावधान यह है कि –
अगर प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री किसी गंभीर आपराधिक मामले में गिरफ्तार होकर 30 दिन से ज्यादा जेल में रहते हैं, तो उन्हें पद से हटा दिया जाएगा।
सदन में क्यों मचा हंगामा?
इस प्रस्ताव पर विपक्ष ने सरकार को घेर लिया। कांग्रेस सांसद के.सी. वेणुगोपाल ने कहा कि यह कदम “संघीय ढांचे और संविधान की मूल भावना” के खिलाफ है।
उन्होंने अमित शाह पर तंज कसते हुए कहा:
“जब आप गुजरात के गृह मंत्री थे और सोहराबुद्दीन शेख फर्जी मुठभेड़ मामले में गिरफ्तार हुए थे, तब क्या आपने नैतिकता का पालन किया था?”
शाह का पलटवार
अमित शाह ने सदन में जवाब देते हुए कहा:
- उन पर लगे आरोप झूठे और राजनीतिक प्रेरित थे।
- गिरफ्तारी से पहले ही उन्होंने गृह मंत्री पद से इस्तीफा दे दिया था।
- उन्होंने बरी होने तक कोई संवैधानिक पद स्वीकार नहीं किया।
शाह ने तीखे शब्दों में कहा:
“हम इतने बेशर्म नहीं हो सकते कि आरोप लगने के बाद भी पद पर बने रहें। मैंने नैतिकता का पालन किया, इस्तीफा दिया और बरी होने तक पद नहीं लिया। कांग्रेस हमें नैतिकता न सिखाए।”
राजनीतिक मायने
- सरकार का पक्ष:
भाजपा इस बिल को राजनीति में नैतिकता और जवाबदेही बढ़ाने वाला कदम बता रही है।
उनका तर्क है कि अगर मंत्री-नेता गंभीर अपराधों में जेल जाते हैं तो जनता का विश्वास डगमगाता है। - विपक्ष का पक्ष:
कांग्रेस और अन्य दलों का आरोप है कि यह कानून “राजनीतिक हथियार” बन सकता है।
इसका इस्तेमाल केंद्र सरकार राज्य सरकारों को कमजोर करने और विरोधियों को दबाने के लिए कर सकती है।
बैकग्राउंड: सोहराबुद्दीन केस और शाह
- 2010 में सोहराबुद्दीन शेख एनकाउंटर केस में अमित शाह की गिरफ्तारी हुई थी।
- उस समय वे गुजरात के गृह मंत्री थे।
- जेल से पहले ही उन्होंने पद से इस्तीफा दिया और 2014 में अदालत से सभी आरोपों से बरी हो गए।
- यही मामला अब कांग्रेस ने उठाया और शाह ने उसका करारा जवाब दिया।
विशेषज्ञों का विश्लेषण
- संवैधानिक विशेषज्ञों का मानना है कि यह संशोधन संघीय ढांचे को प्रभावित कर सकता है। क्योंकि सीएम राज्य विधानमंडल के प्रति उत्तरदायी होते हैं, केंद्र सीधे उनके हटाने का प्रावधान करे तो यह “फेडरलिज्म” पर सवाल उठाता है।
- दूसरी ओर, सुप्रीम कोर्ट की कई टिप्पणियाँ कहती हैं कि राजनीति से आपराधिकरण हटाना जरूरी है। इसलिए इस तरह का प्रावधान जनहित में भी माना जा सकता है।
निष्कर्ष
लोकसभा में पेश किए गए ये बिल सिर्फ कानूनी बदलाव नहीं, बल्कि राजनीतिक शक्ति संतुलन का भी मामला हैं।
- भाजपा इसे “नैतिक राजनीति” कह रही है।
- विपक्ष इसे “संविधान विरोधी” बता रहा है।
आने वाले दिनों में राज्यसभा में इस पर बहस और टकराव और तेज़ होने की संभावना है।
अक्सर पूछे जाने वाले सवाल
नहीं। बिल में साफ है कि केवल तभी हटाया जाएगा जब गंभीर आपराधिक आरोपों में गिरफ्तार होकर 30 दिन से ज्यादा जेल में रहना पड़े।
नहीं। अभी तक ऐसा कोई स्पष्ट प्रावधान नहीं था। पद से हटाने का दबाव राजनीतिक और नैतिक स्तर पर बनता था, कानूनी स्तर पर नहीं।
विशेषज्ञों का मानना है कि राज्यों के मुख्यमंत्री राज्य विधानसभा के प्रति जवाबदेह होते हैं। ऐसे में केंद्र सीधे उन्हें हटाए, तो यह संघीय ढांचे पर सवाल खड़े करता है।
विपक्ष का आरोप है कि इस प्रावधान का इस्तेमाल विरोधी नेताओं को जेल भेजकर सत्ता से हटाने के लिए किया जा सकता है।
हाँ, कई लोकतांत्रिक देशों में आपराधिक मामलों में दोषी पाए जाने पर नेता स्वतः पद से अयोग्य हो जाते हैं। लेकिन गिरफ्तारी भर पर हटाने का प्रावधान बहुत कम देशों में है।
यह विधेयक अभी लोकसभा में पेश हुआ है। इसे पारित होने के बाद राज्यसभा से भी मंजूरी लेनी होगी। उसके बाद राष्ट्रपति की स्वीकृति से यह कानून बनेगा।